Wed. Jul 3rd, 2024
पारिवारिक जीवन चक्रपारिवारिक जीवन चक्र

पारिवारिक जीवन चक्र (Family Life Cycle)

पारिवारिक जीवन चक्र एक प्रक्रिया है, जो विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित है, जिससे व्यक्ति परिवार के एक सदस्य के रूप में गुजरता है। जिस प्रकार मनुष्य बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था से वृद्धावस्था तक शारिरिक अवस्थाओं से गुजरते है, उसी प्रकार परिवार भी विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते है। पारिवारिक जीवन चक्र दो लोगो के विवाह की स्वतंत्रता से आरंभ होता है। इसकी यह विस्तार अवस्था है क्योंकि बालक उत्पन्न होते है, उनका पालन पोषण किया जाता है तथा अभिभावक बालकों के साथ व्यस्त हो जाते है और अपना स्वतंत्र जीवन आरंभ करते हैं, बालकों का कैरियर बनाते हैं और उनका विवाह करते हैं तथा वृद्ध दंपत्ति फिर अकेले रहते है।

यद्यपि यह पारिवारिक जीवन चक्र पश्चिमी और शहरी समाजों में लागू है जहां नाभिक परिवारों का होना आम बात है। यह पारिवारिक जीवन चक्र माडल संयुक्त परिवार, विस्तारित परिवार, अथवा वैकल्पिक परिवार विन्यासों के मामले में भी उपयुक्त नहीं बैठता। भारतीय संदर्भ में पारिवारिक जीवन चक्र उपागम को अनुकूल बनाने का प्रयास किया गया है, जिसमें उन चुनौतियों को सम्मिलित किया गया है, जिनका सामना समाज कार्य व्यवसायिक लोगों के साथ कार्य करते हुये तथा पारिवारिक जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में करते है।

पारिवारिक जीवन चक्र की परिभाषा – वे संवेगात्मक और बौद्धिक अवस्थाएं है, जिनसे व्यक्ति एक परिवार के सदस्य के रूप में बाल्यावस्था से सेवानिवृत्ति तक के वर्षो से गुजरता है।

पारिवारिक जीवन चक्र उपागम मध्यवर्गीय नाभिक परिवारों पर अधिक लागू होता है। गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे परिवार, प्रायः संबंधित पारिवारिक सदस्यों की वृद्धि और विकास से संबंधित अनेक कार्य नहीं कर पाते। वैकल्पिक पारिवारिक विन्यास जैसे महिला प्रधान परिवार और दोहरी आय वाले परिवार, बालक विहीन परिवार, पारिवारिक जीवन चक्र की सभी अवस्थाओं से वैसे नहीं गुजरते जैसा कि बताया गया है। संयुक्त परिवार के विन्यासों में भी इनकी रचना, जीवन शैली और कार्यशैली के कारण विभिन्न कार्य और नियंत्रणकारी (सामना करने की) योग्यताए होती है।

पारिवारिक जीवन चक्र बताता है कि सफल परिवर्तन रोगों और संवेगात्मक अथवा तनाव संबंधी विकारों को रोक सकता है। पारिवारिक जीवन चक्र की जानकारी विषेषरूप से परिवार और साधारण रूप से समाज के कल्याण के लिए पारिवारिक जीवन के ज्ञानवर्धन कार्यक्रमों की योजना बनाने और कार्यान्वयन करने में भी आपकी सहायता करेगी।

पारिवारिक जीवन चक्र की अवस्थाएं

पारिवारिक जीवन चक्र की अवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्हैयक है क्योंकि पारिवारिक जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं मे परिवारों की आवष्यकताये, सदस्यों की आवष्यकतायें, समस्यायें और कठिनाईयां अलग अलग होती है। जिससे समाज कार्य व्यावसायिकों के रूप में, पारिवारिक जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में परिवारों की आवष्यकताओं और संसाधनों का निर्धारण कर सकेंगे तथा कौशलों में विशेज्ञता प्राप्त करने एवं प्रत्येक अवस्था की घटनाओं में परिवारों के समक्ष आने वाली समस्याओं के मामले में आप अपेक्षित मध्यस्थता प्रदान कर सकते है।

पारिवारिक जीवन चक्र की अवस्थायें निम्न लिखित है-

स्वतंत्रता अवस्था

स्वतंत्रता अवस्था मूल रूप से पारिवारिक जीवन चक्र में प्रवेष करने की अवस्था है। यह एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवस्था है क्यों कि जीवन में आगे आने वाली अवस्थाओं को सफलतापूर्वक पूरा करना इसी अवस्था पर निर्भर करता है। यह अवस्था प्रौढ़ावस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति भावनात्मक रूप से अपने परिवार से अलग हो जाता है। व्यक्ति संवेगात्मक, शारिरिक, सामाजिक और वित्तिय रूप से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयास करते है। इस अवस्था में व्यक्ति आपने व्यक्तित्व का विकास करता हैं जिससे वह समाज में अपनी पहचान बना सके।

चिंता का मुद्दा  इस अवस्था में व्यक्तियों को कुछ कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। जो उसके व्यक्तित्व विकास में बाधा डाल सकती है।

  • वैवाहिक साथी की वास्तविकता के बीच अंतराल – कई बार युवा अपने जीवन साथी के प्रति एक छवि बना लेते है। विवाह के पश्चात, जब वे अपनी मानसिक छवि और वैवाहिक साथी की वास्तविकता के बीच अंतराल पाते है तो वे अपने और अपने साथी के साथ कदम नहीं मिला पाते।
  • यौन शिक्षा की कमी – भारत में सामाजिक – सांस्कृतिक वातावरण में लिंग और लैंगिकता के बारे में बात करना वर्जित है। किशोर युवाओं में कामुकता, यौन संरचित रोगों, एच.आई.वी./एड्स आदि के बारे में पर्याप्त और उपयुक्त जानकारी की कमी है। अनेक किशोर और युवा पुरूष यौन कार्यकर्ताओं के पास जाते है अथवा विवाहपूर्व यौन संबंध में बनाते है। इससे उन्हें यौन संचरित रोग/एच.आई.वी. हो सकता है और विवाह के पश्चात वे इसे अपने निर्दोष जीवनसाथी में फैला सकते है।
  • आर्थिक मुद्दे – इस अवस्था में आर्थिक समस्या एक बड़ी समस्या है। बेरोजगारी, अल्प-रोजगार, और कैरियर में असंतोष होने पर व्यक्ति मानसिक रूप से विक्षिप्त रहता है। वह रोजगार की तलाष में होता है, और रोजगार न मिलने पर वह हताष हो जाता है। परिणामतः या तो युवा डिप्रेषन में चला जाता हैं या फिर आत्महत्या का विचार उसके मन में आ जाता है।
  • मादक पदार्थो का सेवन – अधिकांशता इसी अवस्था में मादक पदार्थो के सेवन की लत व्यक्ति को लग जाती है। वह अपने साथियों के साथ मिलकर मादक पदार्थो (मद्यपान, तंबाकू, सिगरेट आदि) का सेवन करना सीख जाता है। जिस कारण उसका पूर परिवार प्रभावित होता है, और उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रवेश अवस्था

स्वतंत्रता के पश्चात पारिवारिक जीवन चक्र में अगली अवस्था दांपत्य अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति विवाह संस्था में प्रवेश करता है, और किसी के साथ प्रतिबद्ध संबंध निर्माण करता है। विवाह के बाद प्रायः लड़की अपने पति के परिवार में जाती है अथवा दंपति नई परिवार इकाई स्थापित कर लेते है। विवाह के बाद अनेक संबंधों से जुडतें हैं, जिनके साथ समायोजन करने की जरूरत होती है।

एक स्त्री विवाह से पूर्व जिन विचारधाराओं, माहोल, मूल्यों में सामाजीकरण होता है, विवाह के बाद परिवार व्यवस्था में परिवर्तन आ जाता हैं। प्रायः यह माना जाता है कि दो व्यक्ति अपने उन निजी विचारों, अपेक्षाओं और मूल्यों के साथ वैवाहिक संबंध में प्रवेश करते है, जिन्हें उनके अनुभवों और मूल परिवार द्वारा आकार दिया जाता है।

नव विवाहित युवा दंपति अपने स्वयं की पारिवारिक इकाई स्थापित करते है। अपने स्वयं की पारिवारिक संरचना में रहने वाला दंपति संप्रेषण करने और विभिन्न कार्यकलापों का आदान प्रदान करने में अधिक स्वतंत्रता और एकांन्तता का अनुभव करता है। पारिवारकि जीवन चक्र की अन्य अवस्थाआकें की तुलना में दांपत्य अवस्था में पति और पत्नी के पास पर्याप्त समय संसाधन होता है।

चिंता का मुद्दा – विवाह के बाद नव दंपतियों को कुछ कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। प्रवेश अवस्था में आने वाली कटिनाईयॉ इस प्रकार है-

  • माता-पिता को पुत्र प्रेम की कमी का अनुभव – आरंभिक समय में नवविवाहित दंपति और परिवार को अनेक समायोजन करने की जरूरत होती है। विशेषकर वृद्ध माता – पिता पुत्र का विवाह के पश्चात पुत्र प्रेम की कमी का अनुभव करने लगते है उन्हें लगता है कि पुत्र का प्रेम बटने लगा है। उनमें असुरक्षा और परायेपन की भावना आ जाती है।
  • समायोजन करने में कठिनाई – विवाह के उपरांत जब नई बहु नए परिवार में आती है तो उसके परिवारिक माहौल, रीति रिवाजों, विचारधाराओं, मूल्यों को अपनाना पड़ता हैं, अपने पुराने मूल्यों, परंपराओं, विचारधाराओं को त्याग कर नई परम्पराओं, विचारधाराओं के साथ समायोजन करना नव विवाहित बहु के लिये कठिन होता हैं।
  • पत्नी को तनाव और दबाव – दोहरी आय कमाने वाले परिवारों के मामले में दंपति को कार्यस्थल पर पर्याप्त समय व्यतीत करना पड़ता है और उनके पास आपसी कार्यकलापों के लिए न्यूनतम समय बचता हैं। यदि पति – पत्नी कार्यस्थल की बाधाओं और निराशाओं को समझतें है और परिवार के संचालन संबंधित भूमिकाओं को आपस में विभाजित करके निभाते है तो परिवार में किसी एक के उपर दबाव नहीं होता है परंतु यदि पति पितृसत्तात्मक और निरंकुश जीवन शैली जारी रखने का प्रयास करता है और चाहता है कि उसकी कामकाजी पत्नी कार्य और घर की देखरेख के बीच एक पूर्ण संतुलन रखे, यह सब पत्नी को तनाव और दबाव में रखता है।

विस्तार अवस्था

लालन पालन – लालन पालन पारिवारिक जीवन चक्र की सर्वाधिक चुनौतिपूर्व अवस्था है। सामान्यतौर पर भारतीय संदर्भ में विवाह का उद्देश्य संतति को जारी रखना है। वास्तव में यह कहा जाता है कि संतान के बिना परिवार अधुरा है। संतानहीनता को अभिशाप माना जाता है। अविवाहित होते हुए अभिभावक बनना भी विशेषकर महिलाओं के लिए एक वर्जना है।

आज के समय में अनेक दंपति व्यस्त कैरियर वाली जीवन शैली के कारण मुख्य रूप से बच्चे नहीं चाहते। इस अवस्था में बालकों का सामाजीकरण अभिभावकों का एक मुख्य कार्य होता है। इसमें शिशु के विकास कार्यो को सफलतापूर्वक करने में उसकी सहायता करना है जैसे शैशवास्था में बैठना, सरकना, खड़े होना, बालकों में भाषा विकास, शारीरिक विकास, सामाजिक कौशल और जैसे-जैसे वे बड़े होते है, उनमें शिष्टाचार व्यवहारकुशलता में विशेषज्ञता प्राप्त करना।

चिंता के मुद्दे या समस्या  

विस्तार अवस्था में बच्चे के जन्म के बाद और बच्चे के जन्म न होने पर भी दंपतियों को अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। इस अवस्था में होने वाली समस्यॉयें निम्नलिखित है –

  • संतान न होने पर जनन क्षमता पर टिप्पणी – समान्यतः विवाह के एक दो वर्ष बाद ही महिला गर्भवती हो जाती है। परंतु यदि पत्नी विवाह के दो वर्ष के अंदर गर्भवती नहीं होती है तो परिवार और आस-पड़ोस में बड़े-बूढे उसकी जनक्षमता पर टिप्पणी और सवाल करना आरंभ कर देते है। जिस कारण से पत्नी की मनःस्थिति पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
  • बालको को बालिका की अपेक्षा अधिक महत्व – समाज में भले ही बदलाव हो गये है, समाज भले ही आगे बढ गया हो लेकिन अभी भी बालको को अधिक महत्व दिया जाता है। पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना इतनी गहरी है कि बालिका को बालकों की अपेक्षा उसी प्रेम एवं प्रसन्नता से मुश्किल से ही स्वीकार किया जाता हैं।
  • अप्रशिक्षित नौकरो पर निर्भर – शिशु प्राप्त करने पर प्रसन्नता के साथ-साथ, नए अभिभावक इन परिवर्तनों के विषय में पर्याप्त तनाव और भय महसूस कर सकते हैं। एक महिला को गर्भवती होने, शिशु के जन्म से गुजरने, और शिशु को पालन – पोषण के बारे चिंताएं हो सकती है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में गर्भवती महिला और बालकवाली मांओं की सहायता करने के लिए अनेक लोग होते है जबकि नाभिक परिवारों में प्रायः दंपत्तियों को छोटे अप्रशिक्षित नौकरों/कर्मचारियों पर निर्भर रहना  पड़ता है। कामकाजी महिलाए कार्यस्थल और बालदेखभाल के बीच संतुलन बनाने में प्रायः तनाव का सामना करती है।
  • भ्रूण हत्या – भारत में अधिकांश समाजों में बालिका को जन्म देना महिलाओं के लिए अपमान माना जाता है। शिशुहत्या असमान्य बात नहीं हैं। भारत का लिंगानुपात महिलाओं के मुकाबले अधिक विषम हैं इसका एक कारण जन्म से पहले अजन्मे शिशु का लिंग पता कर के बालिका भ्रूण की हत्या करना है। भ्रूण हत्या गैर कानूनी है, परंतु यह कार्य शिक्षित, ग्रामीण एवं शहरी लोग सभी कर रहे है।
  • महिलाओं पर काम का बोझ – शिशु जन्म के पश्चात माता – पिता दोनो की जिम्मेदारियॉ कई गुना बढ़ जाती है। उन मामलों में जहां पिता अपने उत्तरदायित्वों से बचते है और कहते है, कि शिशु की देखभाल करना पुरूष का काम नहीं, वहां महिलाएं प्रायः काम के बोझ से दबी होती है जो उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
  • वित्तीय दबाव – शिशु जन्म के बाद संभव है कि घर का खर्च बढने लगता है। युवा अभिभावकों के पास कम समय संसाधन और धन होता है और शिशु जन्म के बाद उनके पास एक और सदस्य की जिम्मेदारी आ जाती है। जिस कारण उनका खर्च में बढोत्तरी होती हैं और वे वित्तीय दबाव के तले दब जाते है।
  • परिवार नियोजन में असामंजस्य – भारतीय संस्कृत में प्रायः अपनी लौंगिगता और यहां तक कि शिशुओं की योजना बनाने के बारे में चर्चा नहीं करते। यह प्रमुख रूप से परिवार नियोन विधि प्रयोग की जाए अथवा नही, पतियों का ही निर्णय होता है। भारत में लैंगिकता से संबंधित अनेक जटिल और सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे है।
  • काम के बारे में बात करना निषिद्ध माना जाता है। महिलाओं से यौन स्वास्थ्य से जुड़ी अपनी समस्याओं पर चर्चा करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। परिवार नियोजन विधियों के बारे में जानकारी बहुत कम है। ऐसे मिथक, भ्रांतियां और धार्मिक मानदंड है, जो परिवार नियोजन विधियों का प्रयोग करने में बाधा पहुंचाते हैं।
  • किशोरो के लालन – पालन से संबंधित कठिनई – किशोरों का लालन – पालन परिवारों के लिए एक कठिन समय होता है। किशोरावस्था वह अवधि होती है जब व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, और सामाजिक रूप से अनेक परिवर्तनों से गुजरता है। ऐसे अनेक हार्मोन संबंधी परिवर्तन होते हैं जो व्यक्ति को यौन परिपक्वता के लिए तैयार करने हेतु शरीर में होते हैं। भारतीय संदर्भ में जहां अपने बच्चों के साथ लिंग और लौंगिकता के बारे में बात करना वर्जित है, वहां अभिभावकों और संवेगों का आदान-प्रदान करने में संकोच करते है।
  • अधिकांश किशोर यौन शिक्षा के लिए अपने साथियों पर निर्भर करते है जिन्हें मुश्किल से जानकारी होती है। विवाहपूर्व यौन संबंध आजकल ग्रामीण और शहरी भारत में बहुत आम है। किशोरों को यौन संरचित रोग और एच.आई.वी. संक्रमण होने की आशंका रहती है। इसके अतिरिक्त ये मंदिरा और नशीले पदार्थो की ओर आकर्षित होते है।
  • शैक्षिक निष्पादन – चिंता का अन्य क्षेत्र शैक्षिक निष्पादन से संबंधित परीक्षा का बढ़ता दबाव और तनाव है। बालकों से अपेक्षाएं बहुत अधिक होती है और कुछ न करने का भय किशोरों से आत्महत्या के प्रयासों को जन्म देता है।
  • समझौता अवस्था: सेवानिवृत्ति एवं रिक्त नीड़ – पारिवारिक जीवन चक्र की यह अंतिम अवस्था है। इस अवस्था मे अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटित होती है। बालक अपना कैरियर बना लेते है, अपना विवाह कर लेते है और या तो विस्तारित परिवार में अथवा अलग में आवासीय इकाई बसाते है। अभिभावकों की आर्थिक रूप से सक्रिय जीवन से सेवानिवृत्ति हो जाती है और परिवार  और समुदाय स्तर पर नए समायोजन और नई भूमिकाएं आरंभ हो जाती हैं।
  • भारत में इस अवस्था में पर्याप्त विषमता देखी जा सकती है। पुत्रिंया विवाह के पश्चात अपने पति के परिवार में चली जाती है, बेटे भी अपना कैरियर और विवाहित जीवन आरंभ करते है।
  • आर्थिक सक्रिय जीवन समाप्त – भारत जैसे अधिकांश पितृसत्तत्मक समाजों में व्याप्त पुरूष अपनी पहचान का एक प्रमुख भाग एक आर्थिक व्यक्ति के रूप में प्राप्त करते है। वृद्धावस्था के समीप सेवानिवृत्ति अनिवार्य होती है। अतः सेवानिवृत्ति अनेक वृद्ध पुरूषों के लिए एक बड़ा प्रहार होती है और इससे समझौता करने में पर्याप्त समय लगता है कि उनका आर्थिक सक्रिय जीवन समाप्त हो गया है। तथापि, लगभग नब्बे प्रतिशत लोग अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करते है जहां बिगड़ते शारीरिक शक्ति और ऊर्जा कठिन शारीरिक श्रम करने में बाधा उत्पन्न करती है और वृद्ध व्यक्ति को कार्य छोड़कर उसे स्वस्थ और परिश्रमी व्यक्ति को देना पड़ता है। वह स्वयं को पर्याप्त समय संसाधन वाली एक समाप्त शक्ति समझते है परंतु उनके पास अल्प धन और ऊर्जा स्त्रोत होते हैं।
  • स्वतंत्रता के मूल्यों और एकांतता ने अंतःपीढ़ी संबंध तनावपूर्ण – समकालीन समय में, वृद्ध महिलाएं अधिकांश महत्वपूर्ण भूमिकाएं छोड़ चुकी होती है, जिन्हें व घर पर करती थीं। प्राचीन और मध्यकाल में व घर परिवार की देख रेख में युवा पुत्रवधुओं का मार्गदर्शन और निरीक्षण करती थी, कहानियां सुनाकर पोते-पोतियों में मूल्यों ओर अनुशासन का संचार करती थी और परिवार के सदस्यों में कोई बीमारियां होने पर घरेलू उपचार के बारे में बताती थीं।
  • आजकल, बढ़ते हुए नाभिक परिवारों के कारण, ये सभी भूमिकाएं समाप्त होती जा रही हैं। स्वतंत्रता के मूल्यों और एकांतता ने अंतःपीढ़ी संबंध को भी तनावपूर्ण बना दिया है। दूरदर्शन, कंप्यूटरों और अन्य आधुनिक यंत्रों के कारण पोते-पोतियों और दादादादियों का आपस से संपर्क करने का समय भी मात्राप्मक ओर गुणात्मक रूप से कम होता जा रहा है। इस प्रकार, जिन परिवारों में तीन पीढिया एकसाथ रह रही है, वृद्ध माता-पिता जिन्होने सब कुछ परिवार के लिए न्यौछावर कर दिया, उनकी उपेक्षा की जा रही है और तिरस्कार किया जा रहा है तथा वे असुरक्षित हो जाते है।
  • रिक्त नीड़ लक्षण  – ऐसी स्थिति में जहां युवा बालक-अपनी स्वयं की पारिवारिक इकाई स्थापित करने और अपने कैरियर का विकास करने के लिए घर-परिवार छोड़ देते है, वृद्ध माता पिता परिवार में अकेले रह जाते है। उन्होने अपनी पारिवारिक इकाई इकट़ठी आरंभ की थी और अब इस अवस्था में वे अकेले पड़ जाते हैै।
  • इसे ही ‘रिक्त नीड़‘ कहते है। उनके पास पर्याप्त समय संसाधन तो होता है परंतु ऊर्जा स्त्रोत ओर धन स्त्रोत पर्याप्त रूप से घट जाते है। 
  • स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं – इस अवस्था में वृद्धों को बहुत सारी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं जैसे उच्च/निम्न रक्तचाप, अस्थमा, मधुमेह, मोतियाबिंद आदि उन्हें घेर लेते है जो उनके दैनिक जीवन के कार्यकलापों को प्रभावित करते है।
  • सामाजिक असुरक्षा – भारतीय संदर्भ मे आमतौर पर वृद्ध अभिभावकों को अकेला नहीं छोड़ा जाता है और वे परिवारों के साथ रहते हैं वृद्ध आश्रम बन रहे है परंतु व लोकप्रिय नहीं है।
  • यदि कुछ संघर्ष भी है, तो भी वृ़द्धजन केवल अपने परिवार में रहना चाहते है। इसके अतिरिक्त, मृत्यु के कारण जीवनसाथी का बिछुड़ना एक प्रमुख संकट की घटना होता है। विशेषकर वृद्ध महिलाओं में वैधव्य उनकी असुरक्षा को कई गुना बढ़ाता है। सामाजिक-सांस्कृतिम पर्वागृह और भेदभावों के कारण, वैधव्य प्रायः संवेगात्मक दुःख के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा भी लाता है।

पारविारिक जीवन चक्र की अवस्थाओं में आने वाली समस्याओं में समाज कार्य की भूमिका

समाज कार्य व्यवसायिकों के रूप में, समाज कार्य कर्ता पारिवारिक जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में पारिवारों की आवश्यकताओं और संसाधनों का निर्धारण कर सकेंगे तथा कौशलों में विशेषज्ञता प्राप्त करने एवं प्रत्येक अवस्था की घटनओं में परिवारों के समक्ष आनेवाली समस्याओं के मामले में समाज कार्य कर्ता अपेक्षित मध्यस्था प्रदान कर सकते है।

समाज कार्यकर्ताओं की अन्य भूमिका, परिवारों में प्रत्येक में प्रत्येक अवस्था की चुनौतियों और आवश्यकताओं के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना होगा ताकि परिवार की विभिन्न व्यवस्थाओं में और परिवार तथा सामाजिक पर्यावरण के बीच कुसमायोजन कम से कम हो। पारिवारिक जीवन चक्र की समस्यायें जिनमें समाज कार्य कर्ता परिवार के सदस्याओं को सहायता प्रदान कर सकता है, निम्न प्रकार है-

  • विवाहपूर्व परामर्श – पति/पत्नी और सास/ससुर की भूमिका को स्वीकार करना, संवेगात्मक परिपक्वता और जीविन-साथी से वास्तविक अपेक्षाएं, परस्पर संतोषजनक संबंध और घनिष्ठता विकसित करने की आवश्यकता समझना। पितृसत्तात्मक आदर्शो के मुकाबले पति/पत्नी की भूमिकाओं के प्रति युवाओं में लोकतांत्रिक दृष्टिकोण विकसित करने के उद्देश्य से विवाहपूर्व परामर्श प्रदान करना।
  • यौन शिक्षा प्रदान करना – किशोर युवा प्रौढ़ो में काम, कामुकता, यौन संरचित रोगों, एच.आई.वी., आदि के बारे में पर्याप्त जानकारी की कमी रहती है। जिससे उन्हें यौन संचरित रोग होने का डर रहता है। अतः यौन शिक्षा प्रदान करना समाज कार्यकर्ताओं के लिए एक सबसे बड़ी चुनौती है।
  • स्वास्थ्य के प्रति जागरूक – स्वास्थ्य जीवन शैली का ज्ञान और प्रचलन, पोषक आहार लेना, कुपोषण से बचना, नशीले पदार्थो का दुरूपयोग न करना। विशेषकर महिलाओं में होने वाले रक्ताल्पता और अन्य हीनताजन्य रोगों के दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षा देना।
  • कैरियर विकास – उचित रोजगार प्राप्त करना, परिवार को स्वतंत्रतापूर्वक चलाने के लिए, मुख्य रूप से पुरूषों में विश्वास होना। सूचना का प्रसार, सामाजिक पर्यावरण में यदि व्यक्ति का सामना कार्य प्रणाली के साथ किसी संघर्ष से होता है तब समर्थन देना, मध्यस्थता, कौशल वृद्धि सुलभ कराना।
  • संबंधों को सुदृढ़ करना – दंपति का पृथक – पृथक प्रकार का संबंध होता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं को यह पता लगाना चाहिए कि संबंधों में अंतराज कहां मौजूद है और तदनुसार अंतरालों को दूर करने और वैवाहिक कल्याण को बढ़ाने में सहायता करनी चाहिए। परिवार परामर्श, परिवार चिकित्सा, केस अध्ययन, समर्थन, समूह-परामर्श, परिवार कल्याण बढ़ाने से संबंधित सत्र कुछ ऐसी कार्यनीतियां है जिनका प्रयोग परिवार और बालविकास के क्षेत्र में समाज कार्यकर्ताओं द्वारा किया जाता है।
  • बालिका के विरूद्ध पक्षपात के प्रति जागरूकता – भारत में अधिकांश परंपरागत समाजों में बालिका को जन्म देना महिलाओं के लिए अपमान माना जाता है। भ्रूणहत्या गैर कानूनी है परंतु यह कार्य शिक्षित और अशिक्षित, ग्रामीण और शहरी लोग सभी कर रहे है। बालिका के विरूद्ध इस गहरे पक्षपात को जो उसके जीवन के अधिकार को उससे छीनता है, दूर करना समाज कार्य व्यावसायिकों के लिए पर्याप्त चुनौतिपूर्ण है।
  • पारिवारिक असंगठन एवं विवाह – विच्छेद से बचाना – यदि दंपतियों में संचार कौशल, संपर्क, संबद्ध में दृढ़ता, लोकतांत्रिक निर्णयन भूमिकाओं का निर्वहन, एक – दूसरे की आवश्यकताओं और समस्याओं की समझबूझ नहीं है तो विवाहोतर संबंध, वैवाहिक दुरूपयोग जो अलगाव और तलक में परिणत हो जाता है।
  • समाज कार्यकर्ताओं का वैवाहिक असंगठन और पारिवारिक – विच्छेद से बचाने में निवारक भूमिका होती है। यदि पारिवारिक असंगठित है तब समाज कार्यकर्ताओं को बालकों और अन्य पारिवारिक सदस्यों का इस प्रकार से पुनर्वास करने की जरूरत है कि हानि को न्यूनतम किया जा सके।
  • वृद्धावस्था में परामर्श कार्य – इस अवस्था में समाज कार्य व्यावसायिकों की भूमिकाओं में पूर्व- सेवानिवृत्ति परामर्श, वृद्धावस्था के लिए उत्तर मघ्यावस्था के लिए तैयार करना, स्वास्थ्य संबंधी वित्तीय प्रबंधन पर सलाह, जीवनसाथी, संगे-संबंधियों और मित्रों की मृत्यु पर चर्चा करना। अतः पीढ़ी संबंध बनाना, सक्रिय वृद्धावस्था, बुढ़ापे में शारीरिक और वित्तीय स्वायत्तता बनाए रखना शामिल है।

इसके अतिरिक्त समाज कार्यकर्ता की भूमिका पर्यावरण में विभिन्न सामजिक व्यवस्थाओं और संबंधित पारिवारिक सदस्यों के बीच किसी भी प्रकार के असंगत संबंध अथवा परिवार के अंदर किसी भी परस्पर विरोधी संबंध को सुधारने की होगी।

जो युवक अपना पारिवारिक जीवन आरंभ करने जा रहे है, उनकी सहायता करने का हर प्रयास किया जाना चाहिए उन्हें सहसंबंध प्रेम और घनिष्ठतां,परिपक्वता विकसित करने के लिए स्वयं को तैयार करना चाहिए और विवाहित दंपतियों के रूप में उनसे अपेक्षित सामाजिक भूमिकाओं को निष्पादित करने के लिए कौशन विकसित करने चाहिए।

जो व्यक्ति घनिष्ठता और प्रेम की सक्षमता विकसित करने में असमर्थ रहते है, वे अलगाव और परायेपन में रहते है जिसके लिए रोगहर स्तर पर समाज कार्यकर्ताओं की भूमिका की आवश्यकता पड़ती हैं।