भारत में समाज कार्य शिक्षा अवसर एवं चुनौतियां
भारत में समाज कार्य का क्षेत्र एक महत्वपूर्ण और सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने का माध्यम है, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों और समूहों के लोगों के लिए विकास और सुधार की प्रक्रिया शामिल होती है। समाज कार्य शिक्षा एक ऐसी मुख्य दिशा है जो समाज के विभिन्न श्रेणियों के लोगों को समाज में समाहित और सक्रिय भागीदार बनाने के लिए शिक्षा का माध्यम होती है। इसमें विभिन्न प्रकार की चुनौतियां और अवसर होते हैं, जो समाज कार्यकर्ताओं को नए और स्वर्णिम पथों पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इस लेख में, हम भारत में समाज कार्य शिक्षा के अवसर और चुनौतियों की एक परिकल्पना प्रस्तुत करेंगे।
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समाज कार्य क्या है ?
समाज कार्य एक अन्य पेशों (जैसे वकालत, चिकित्सा, प्रबंधन, प्रद्योगिकी, विशिष्ट आर्थिक व वित्तीय सेवायें, अन्य विशिष्ट सेवाओं) की तरह एक ऐसा क्षेत्र है जो सकारात्मक, और सक्रिय हस्तक्षेप के माध्यम से लोगों और उनके सामाजिक वातावरण के मध्य अन्तःक्रिया द्वारा उनकी क्षमताओं को बेहतर करता है । जिससे वे अपने दैनिक जीवन यापन संबंधी विभिन्न जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो सकें । उदाहरण के तौर पर व्यक्तिओं को सक्षम बना देना कि वे अपने आजीविका, स्वास्थ्य एवं अन्य जीवन से सम्बंधित निर्णय सोच-समझकर स्वयं ले सकें ।
भारत में समाज कार्य का विकास या उत्पत्ति कैसे हुयी ?
मजूमदार,’ मेहता, गोरे, राजाराम शास्त्री, इत्यादि अनेक विद्वानों ने भारत में समाज कार्य के ऐतिहासिक विकास का वर्णन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 19वीं शताब्दी में, विशेष रूप से राजाराम मोहन राय के समय में, भारतीय साहित्य में समाज सुधार तथा बाद में समाज कार्य का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त मुस्लिम तथा मराठा काल के साहित्य में भी कहीं-कहीं समाज कल्याण सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होते हैं। विभिन्न प्राचीनकालीन ग्रंथों का अध्ययन करने पर तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में समाज कल्याण सम्बन्धी कार्यों की स्पष्ट झलक मिलती है और इसीलिए यह कहा जाता है कि भारतीय समाज में समाज कार्य की जड़ें बहुत ही पुरानी हैं ।
भारत में समाज कार्य की उत्पत्ति या विकास का इतिहास इस लेख में विस्तृत रूप से समझें
भारत में समाज कल्याण के विकास का वर्णन निम्नलिखित श्रेणियों के माध्यम से समझा जा सकता है;
सामुदायिक जीवन काल
सिंधु घाटी की सभ्यता के मोहनजोदड़ों तथा हड़प्पा में प्राप्त अवशेषों से यह पता चलता है कि इस अवधि में नगरीकरण उच्चतम सीमा पर था किन्तु दास प्रथा किसी न किसी रूप में विद्यमान थी और इन दासों की आवश्यकताओं की पूर्ति और उनके कल्याण के लिए भी व्यवस्था की जाती थी। वैदिक काल में तीन प्रकार के सामाजिक कार्य स्पष्ट रूप से सम्पादित किये जाते थे। ये कार्य शासन, सुरक्षा तथा व्यापार से। सम्बन्धित थे। इन कार्यों को सम्पादित करने वाले तीन वर्ग विद्यमान थे। इस युग में यज्ञ, हवन एवं दान का प्रचलन था।
समाज के सभी सदस्य उत्पादन संबंधी कार्यों में भाग लेते थे और उनके सामूहिक श्रम के फलों को सभी सदस्यों में वितरित किया जाता था। यज्ञ जीवन तथा उत्पत्ति को बनाये रखने के लिए समुदाय की क्रियाओं का संकलन था। हवन सामूहिक प्रयासों के परिणामस्वरूप दिन-प्रतिदिन होने वाले लाभों का व्यक्तिगत सदस्यों में वितरण था।
दान प्रसन्नता के अवसरों पर समुदाय के सदस्यों में युद्ध से प्राप्त वस्तुओं का वितरण था। इस व्यवस्था में समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति करने का उत्तरदायित्व अन्य प्रत्येक व्यक्ति पर था। वैदिक काल में विशेष प्रकार की सहायता की आवश्यकता रखने वाले व्यक्तियों का उत्तरदायित्व शासकों, धनी व्यक्तियों तथा सामान्य समुदाय के साधारण सदस्यों द्वारा आपस में बांट लिया जाता था।
सभी लोग अपने साधनों के अनुसार अपने कार्य का पालन करने में एक दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयास करते थे। ये कार्य मंदिरों एवं आश्रमों की स्थापना, उन्हें सुचारु रूप से चलाने के लिए किये गए सम्पत्ति के समर्पण, सन्तों एवं महात्माओं के लिए मठों के निर्माण, घुमक्कड़ योगियों तथा मंदिरों एवं आश्रमों में रहने वालों के लिए भोजन, इत्यादि की आपूर्ति के रूप में किया जाता था।
बौद्ध काल में भी लोगों के कल्याण के लिए भगवान बुद्ध ने सड़कें बनवायीं, ऊबड़-खाबड़ मार्गों को बराबर करवाया, बांध बनवाये, पुलों का निर्माण कराया तथा तालाब खुदवायें और समाज में पायी जाने वाली परम्परावादी अनेक प्रकार की कुरीतियों का विरोध किया।
दान काल
धार्मिक प्रेरणा से समाज सेवायें प्रारम्भ हुई। अनेक प्रकार के सार्वजनिक कल्याणकारी कार्य सम्पादित किये जाने लगे। उदाहरण के लिए नहरें, तालाब तथा कुएं खुदवाना, पेड़ लगवाना, मंदिर बनवाना, धर्मशाला तथा आश्रम बनवाना, विद्यालय तथा चिकित्सालय स्थापित करना, इत्यादि, इन सभी कल्याणकारी कार्यों का उद्देश्य आवागमन से मुक्ति दिलाने वाले मोक्ष तथा सामाजिक स्वीकृति को प्राप्त करना था। अनेक प्रकार की धार्मिक संस्थाओं ने भी सार्वजनिक कल्याण सम्बन्धी कार्य प्रारम्भ किये।
अनेक धनवानों ने अपनी सम्पत्ति धार्मिक संस्थाओं को सौंप दी या ट्रस्ट बना दिये जिनके माध्यम से अनेक प्रकार के कल्याणकारी कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे। मुसलमानों के भारत में आने के बाद उनके द्वारा भारतीय सामाजिक व्यवस्था को इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार चलाने का प्रयास किया गया। इस्लाम की “जकात” एवं “खैरात” की अवधारणाओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हुई।
मुस्लिम सम्प्रदाय में अपनी आय का 2.5 प्रतिशत अनिवार्य रूप से निर्धनों एवं आवश्यकताग्रस्त व्यक्तियों को प्रदान करने की शिक्षा दी जाती है। इसी प्रकार से ये स्वैच्छिक रूप से अकिंचन एवं निराश्रितों को खैरात के रूप में सहायता प्रदान करते रहे हैं। शासकों ने आवश्यकताग्रस्त व्यक्तियों के लिए समय-समय पर अनेक प्रकार की समाज सेवाओं का प्रावधान किया।
उदाहरण के लिए, रोगियों के उपचार के लिए चिकित्सालय, बच्चों की शिक्षा के लिए शिक्षा संस्थायें, यात्रियों के लिए बारादरियां एवं मुसाफिरखान इत्यादि। मस्जिद से सम्बद्ध मदरसों के रूप में कार्य करने वाली शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करना मुस्सलिम मुदाय में अत्यधिक प्रचलित रहा है। इसके अतिरिक्त बूढों बीमारों और अपंगों की सहायता संयुक्त परिवार करते रहे हैं।
अकबर के शासनकाल में अनेक प्रकार के समाज सुधार किये गये। अकबर ने दीन इलाही चलाया। उसने अपने राज्य को एक धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया। दास प्रथा को समाप्त किया और यात्री कर तथा जजिया कर लगाया ताकि कल्याण संबंधी कार्य सम्पादित किये जा सकें। अकबर ने सती प्रथा के सम्बन्ध में भी यह आदेश दिया कि यदि कोई विधवा सती न होना चाहे तो उसे ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा। उसने द्विपत्नी विवाह पर रोक लगायी तथा विवाह के आयु की सीमा को बढ़ाया।
धार्मिक सुधार काल
1780 में बंगाल में सेरामपुर मिशन की स्थापना की गयी और धार्मिक प्रचारकों ने भारतीय जनता में यह प्रचार करना आरम्भ किया कि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के विविध क्षेत्रों में, विशेष रूप से बाल विवाह, बहुविवाह, बालिकाओं की हत्या. सती प्रथा, विधवा विवाह सम्बन्धी निषेधों जैसे क्षेत्रों में सुधार किये जाने की आवश्यकता है।
चार्टर ऐक्ट, 1813 के अंतर्गत शिक्षा के विकास का प्रावधान किया गया तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले कार्य को स्वीकृति प्रदान की गयी। ईसाई मिशनरियों द्वारा पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार पर बल दिया गया। अच्छी सेवाओं तथा ईसाई धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण भारतीयों की मनोवृत्ति में अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयों यथा सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह पर निषेध, इत्यादि की ओर ध्यान आकर्षित हुआ।
यद्यपि सेरामपुर के मिशनरियों ने सती प्रथा के विरुद्ध कार्य करना प्रारम्भ कर दिया था फिर भी राजा राम मोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने इस दिशा में आन्दोलन चलाया।
राजा राम मोहन राय ने जातीय विभेदों एवं सती प्रथा को समाप्त करने की सलाह दी। एक धार्मिक प्रचारक, शिक्षा शास्त्री एवं समाज कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने भारतीय सामाजिक व्यवस्था को अत्यधिक प्रभावित किया। सती प्रथा के विरोध में उनका पहला लेख 1818 में प्रकाशित हुआ। उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि 1829 में लार्ड विलियम बैटिंग द्वारा विनियमन अधिनियम (Regulatory Act) पारित करते हुए सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया गया। 1815 में राजा राम मोहन राय ने भारतीय समाज की स्थापना की जो बाद में 1828 में ब्रह्म समाज के रूप में हमारे सामने आया।
ब्रह्म समाज द्वारा अकाल के शिकार लोगों के कल्याण, बालिकाओं की शिक्षा. विधवाओं की स्थिति में सुधार, जाति बंधनों के उन्मूलन तथा दान एवं संयम को प्रोत्साहित करने के क्षेत्र में अनेक प्रकार के कार्य किये गये। राजा राम मोहन राय के अनुयायियों के रूप में द्वारिकानाथ टैगोर, देवेन्द्र नाथ टैगोर तथा केशव चन्द्र सेन ने ब्रहा समाज की गतिविधियों को तीव्रगति से चलाया। 1894 में हिन्दू बालिकाओं के लिए पहली शिक्षा संस्था स्थापित की गयी।
1893 में केशव चन्द्र सेन ने महिलाओं की शिक्षा के कार्य को और आगे बढ़ाया। ईश्वरचन्द विद्यासागर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यह सिद्ध करते हुए कि विधवा पुनर्विवाह हिन्दू धर्म ग्रन्थों में दिये गये निर्देशों के विरुद्ध नहीं है, इसके विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ किया और इन्हीं के अनवरत प्रयासों का, विशेष रूप से 1855 में सरकार से की गयी अपील, का परिणाम था कि कट्टरपंथी हिन्दुओं के कठोर विरोध के बावजूद 1856 में हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ।
व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं संगठन काल
इस देश में व्यावसायिक समाज कार्य प्रशिक्षण के क्षेत्र में वर्ष 1936 एक अत्यधिक महत्वपूर्ण वर्ष है क्योंकि 1936 में समाज कल्याण के विभिन्न क्षेत्रों में विविध प्रकार के पारितोषिकपूर्ण कार्यों को करने के लिए अपेक्षित ज्ञान एवं निपुणताओं से उपयुक्त रूप से सुसज्जित करने हेतु प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को तैयार करने के इरादे से सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने अमरीकी मराठा मिशन के डा० किलफर्ड मैन्सहर्ट की सलाह पर अमरीका के समाज कार्य की शिक्षा संस्थाओं के प्रतिमान पर सर दोराब जी टाटा ग्रेजुएट स्कूल आफ सोशल वर्क की स्थापना की।
1947 तक सर दोराब जी ग्रेजुएट स्कूल ऑफ सोशल वर्क एकमात्र ऐसी संस्था थी जो इस देश में व्यावसायिक समाज कार्य का प्रशिक्षण प्रदान करती थी। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रश्चात काशी विद्यापीठ, वाराणसी तथा कालेज ऑफ सोशल सर्विस, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद की स्थापना हुई। इसके बाद 1948 में डेलही स्कूल ऑफ सोशल वर्क स्थापित किया गया। 1949 में समाज कार्य विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।
1951 में योजनाबद्ध विकास का युग प्रारम्भ हुआ जिसके परिणामस्वरूप समाज कल्याण के क्षेत्र में अनेक प्रकार के कार्यों का सृजन हुआ। 1953 में भारत सरकार द्वारा समाज कल्याण के क्षेत्र में स्वयंसेवी संगठनों के प्रयासों को प्रोत्साहित करने एवं सुदृढ़ बनाने की दृष्टि से केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना हुई। जिसके द्वारा स्वैच्छिक समाज कल्याण संस्थाओं को समाज कल्याण के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों को आयोजित करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाने लगी।
परिणामतः समाज कल्याण के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के उत्तरदायित्वों को ग्रहण करने के लिए प्रशिक्षित जनशक्ति तैयार करने की आवश्यकता और अधिक घनीभूत हुई और इसकी पूर्ति के लिए समाज कार्य का व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने वाली संस्थाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई ।
भारत में समाज कार्य शिक्षा (BSW, MSW, इत्यादि)
भारत में समाज कार्य शिक्षा दो स्तरों-स्नातक (Graduate) एवं स्नातकोत्तर (Post Graduate) पर प्राप्त की जा सकती है ।
Bachelor of Social Work (BSW)
भारत के कुछ विश्वविद्यालयों में योग्यता के आधार पर बीएसडब्ल्यू पाठ्यक्रमों में सीधे प्रवेश लिया जा सकता है प्रवेश दिया जाता है । जबकि, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में या विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त महाविद्यालयों में BSW में प्रवेश हेतु उम्मीदवारों को कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (CUET) के माध्यम से प्रवेश लिया जा सकता है ।
इसके साथ BSW में प्रवेश हेतु उम्मीदवारों को कक्षा 12 (10+2) की बोर्ड परीक्षा में न्यूनतम 55% (आप जिस विश्वविद्यालय / महाविद्यालय में BSW में प्रवेश चाहते हैं वहाँ से सुनिश्चित कर लेवें) से उत्तीर्ण होना चाहिये । अनुसूचित जाति और जनजातियों के उम्मीदवारों को सरकार के नियमानुसार न्यूनतम अंकों (55%) की योग्यता में छूट/रियायत डी जाति है ।
Master of Social Work (MSW)
उम्मीदवारों को किसी मान्यता प्राप्त महाविद्यालय से स्नातक /ग्रेजुएशन पास होना चाहिये । इसके अलावा यदि आप ग्रेजुएशन में BSW Course किये है तो आप इस कोर्स के लिए योग्यता रखते हैं ।
आप जिस विश्वविद्यालय / महाविद्यालय में MSW में प्रवेश चाहते हैं वहाँ से सुनिश्चित कर लेवें कि ग्रेजुएशन में वर्गवार (समान्य/ अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग) हेतु न्यूनतम (45/40%) अंकों उत्तीर्ण होना अनिवार्य है ।
छत्तीसगढ़ में उम्मीदवारों को MSW Course में दाखिला लेने के लिए आयु की कोई सीमा नहीं होती ।
भारत में समाज कार्य शिक्षा में प्रमुख चुनौतियां कौन-कौन सी हैं ?
भारत एक विकासशील देश है, अतः शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ न कुछ चुनौतियाँ हैं । भारत में समाज कार्य शिक्षण में कुछ चुनौतियाँ निमंलिखित हैं;
- समाज कार्य को पेशे या व्यावसायिक सामाजिक कार्य की सार्वजनिक मान्यता का अभाव
- शिक्षण व प्रशिक्षण के स्तर में सुधार की आवश्कता
- शोध-आधारित गुणवत्तापूर्ण अध्ययन सामग्री या साहित्य का अभाव
- अन्य पेशेवर अध्ययन के क्षेत्रों; जैसे चिकित्सा, कानून, प्रबंधन, लेखा, इत्यादि की भाँती समाज कार्य के शिक्षण, प्रशिक्षण एवं सम्बंधित अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों हेतु नियामक के तौर पर राष्ट्रीय परिषद के गठन की आवश्कता
- उच्च शिक्षा के अंतर्गत समाज कार्य शिक्षण हेतु विश्वविद्यालयों / महाविद्यालयों में नियमित शिक्षकों / प्राध्यापकों की आवश्यकता
भारत में समाज कार्य में रोजगार व स्वरोजगार कौन-कौन से अवसर हो सकते हैं ?
जैसे कि इस लेख के शुरुआत में ही बताया गया कि कोविड-19 महामारी के परिपेक्ष्य में, अब भारत में समाज कार्य एक महत्त्वपूर्ण पेशे के रूप में महसूस किया जाने लगा है । समाज कार्य के क्षेत्र में रोजगार व स्वरोजगार की असीम संभावनायें हैं जिनमें से कुछ निमंलिखित क्षेत्र हैं;
- सामाजिक क्षेत्र में (विभिन्न क्षेत्रों की गैर सरकारी संस्थाओं में अवसर)
- सरकार के विभिन्न विभागों में (जैसे महिला एवं बाल विकास, इत्यादि)
- चिकित्सा के क्षेत्र में
- पर्यावरण के क्षेत्र में
- निजी संस्थाओं में अधिकारी के तौर पर
- शिक्षण व प्रशिक्षण के क्षेत्र में
- समाजिक क्षेत्र में शोध व लेखन हेतु समाजिक कार्यकर्ता की आवश्यकता
- लोक नीति हेतु थिंक टैंक के क्षेत्र में इत्यादि
अतः अब आशा है कि आप ‘भारत में समाज कार्य शिक्षा अवसर एवं चुनौतियां’ विषय पर आप थोड़ी-बहुत समझ विकसित करने में सक्षम हुये होंगे ।
कृपया इस लेख के बारे में अपने विचार या सुझाव हमें जरुर बतायें । धन्यवाद । जय हिन्द ।
लिखिका-दामिनी पाण्डेय, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश